मेरे घर की चार दिवारी ह,
ओर मॆं हू एक अकेली,
chhat ह जो कई सालो से वही ह,
उसमे से आब कुछ अक्रित्यां से झाँकें लगी ह
ओर दीवारे ह की उनका रंग उड़ गया ह मेरी तरह,
मै मोन सी हू, चुप चाप देखती हू,
दूर रस्तो से मेरे घर के लोग मुझे हाथ हीला कर,
अलविदा कह रहे ह, ओर अपने अपने कामो को जा रहे ह,
मै अकेली thunth सी खडी हू, आँखों मै खालीपन सा lia
सोचती हू, की शाम होगी सब लौटेंगे,
ओर मॆं खाना परोसूंगी ,
जब मेरे बच्चे रोटी कहेंगी तो भाग कर दूँगी !
मै वही खडी हू घर की चार दिवारी मै,
ओर वो तो जाने सारा जहाँ घूम कर लोट आये,
पर आना तो उनको घर ही ह,
थक कर छांव घर मै मीलती ह,
सब पंछी उड़ कर सुबह नीकल जाते ह,
ओर लोट कर घरोंदो मै आते ह,
तब माँ की सीने मै ठंडक पड़ती ह,
घर की चार दीवारी मै माँ ही ह जो रहती ह!
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