आईने मॆं कभी चेहरा देखा करती हूँ तब
लगता ह जाने क्यों जब तब
मेरे चेहरे पर वक्त ठहर सा गया ह
वही जाना पहचाना सा चेहरा ह
वही हँसी ह, वही उमंगें
वही आज भी कुछ कर गुजरने का जोश
मगर एक अजनबी सा `मॆं`
मुझमे आ गया ह,
मॆं चीजो को परखने लगी हूँ,
उनको देखने का नजरिया बादल सा गया ह
पहले जिन चेहरों मॆं मॆं केवल खूबियाँ दून्डा थी करती
अब उन चेहरों की महीन रेखाओं मॆं भी?
नजर आ जाती ह कोई त्रुटी,
और मॆं कहने से खुद को रोक नहीं पाती
बार बार मेरी जिव्हा मेरा अनुभव ह बताती
पर एक कसक सी कसमसाती ह अभी भी
कि मेरे इस अनुभव को कोई पहचानता क्यों नहीं?
कोन ह ऐसा पारखी जो, समझेगा कभी मुझको भी!
2 comments:
बहुत ही सुन्दर प्रयास है जी.....
अभी समय का अभाव है सो मात्र इतना ही......
कुंवर जी,
1) "आवश्यकताओं का यदि चिंतन न किया जाये व ये सोचा जाए कि ढीक है परमात्मा यदि चाहेंगे तो हमारी कोई भी जरूरत पूरी हो जाएगी और यदि वो पूरी नहीं करतें हैं तो जरूर उसमे कोई हमारी ही भलाई छुपी है तो ऐसा सोचने से कोई भी हमारी जरूरत इच्छा में परिवर्तित नहीं होगी व हमारी मृत्यु के समय कोई भी इच्छा शेष नहीं रहेगी व हमें मोक्ष प्राप्त होगा। मनुष्य का वास्तविक भौतिक जीवन आवश्यकता प्रधान है इच्छा प्रधान नहीं है सिवाय परमात्मा से मिलने की इच्छा के। आवश्यकताओं के बारे में रात-दिन सोचते रहने से ही वो इच्छाओं में परिवर्तित हो जातीं हैं व मृत्यु के बाद हमारे ही साथ अगले जनम में भी पहुँच जातीं हैं व हमें अपनी ओर खींचती रहती हैं।"
........Narayan
Post a Comment