बहुत से मंजर देखे , ताउम्र देखते रहे
दुनिया चाँद पे पहुंची होगी
मगर यहाँ रहने वाले यही घुट घुट के मरते रहे
अपने आगे लोगो के जोशो खरोश को ठन्डे होते देखा मैने
बहुत से नयी सोच वाले, अपनी सोच को बदलते गये ,
अपने आगे सपनों को ढेर होते देखा मैने,
एक रोटी का टुकड़ा भी नस्सेब न हुआ जब
तो बशर इस शहर के उसी टुकड़े के लिए लड़ते गये
इतना कोई न सोच पाया कि चलो हाथ बड़ा के
रोटी और एक बना ले,बस एक उस चाँद के लिए
सेकड़ो रोज मरते गाये, लुटते गये , पिटते गये
ए खुदाया इस शहर के हिस्से मॆं कुछ नेकी बाँट
वरना कौरव और पांडव न हर जन्म मे लड़ते रहे मिटते रहे
2 comments:
लाजवाब है जी......
बहुत दिनों के बाद आना हुआ जी आज यहा....
हर पंक्ति अपनाप में मिसाल सी है!
कुंवर जी,
thanx kunwar ji
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