कागज पर ढल आई है मेरे अक्स की स्याही, कुछ और नहीं मैं बस एक रचना ही तो हूँ if u want to see the poems of my blog, please click at the link of old posts at the end of the each page
Tuesday, January 31
Wednesday, January 25
पागल नदी को खुद में समाने को कहो
क्यों उफन उफन नदी का जल समुन्द्र में गिरने को है तैयार
क्युकी उस नदी को कोई भी न खुद में समाने को तैयार
क्यों ऐसा है की कोई भी उस चाहता न है
इस लिए वो लबलबा के है बहने को तैयार
गर प्यार उसको मिल जाता खुद के समुन्द्र से ही
तो न भटकती, न मटकती न चाहतो को चाहती
लो उड़ गयी, जो थी बंध चुकी,
लो मिट गयी जो थी उफनती
मगर सुनो वेग तो कहीं समाएगा
ये नियम हा इस दुनिया का
फिर क्यों न समझो तुम कभी
प्यार दो तो प्यार मिलेगा ही
न दोगे प्यार, तो नदी उफनती किसी और सागर में मिलेगी
हो भी सकता हा वो जल कसैला मटमैला सा हो
पर कौन समझाए उस सागर को
जो तुम प्यार दो तो ही प्यार लो
मदमस्त सा वो सागर जो है
अपने आपे से बहार है
उसे अपने आपे में आने को कहो
उस पागल नदी को खुद में समाने को कहो
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