जर्रे जर्रे में मेरा दर्द बहा नदी की तरह ,
खून पानी बन गयाहै मेरा,
मैं हर रोज रोती हूँ किस्मत पे अपनी,
खून पानी बन गयाहै मेरा,
मैं हर रोज रोती हूँ किस्मत पे अपनी,
न चैन रात को है , न दिन को किसी भी तरह
एक अनचाहा सा रिश्ता खींच रही हूँ,
जिसमे बस दर्द बसा है केवल,
मगर मैं खींच रही हूँ उसे एक कुली की तरह
जो लोग मेरे अपने होने का दम भरते है,
वो भी बन गए है देखो अजनबी के तरह
न मर पा रही हूँ न मैं जी सकती हूँ ऐसे ,
जब हर दिन गिरता हो , बिजली की तरह
सारा दिन थक हार के जब मैं सोती हूँ,
बिस्तर लगता है कंटीली झाडी की तरह ,
ऐ रस्मो रिवाज की दुहाई देने वालो,
कभी तो अपना लो मुझे औलाद या बेटी की तरह,
मैं एक इंसान हूँ देवी नहीं
न इम्तेहान लो मेरा शिवजी की तरह
मैं खुदा नहीं हूँ की जहर पीलूंगी हर पल
कभी तो वो जहर उगलेगा ,ज्वालामुखी की तरह !
4 comments:
सशक्त अभिव्यक्ति है आपकी । सुंदर भावों की एक नदिया बहती है आपके भीतर.. कभी मेरे ब्लाग पर भी पधारें।
आपका ब्लॉग बहुत पसंद आया. आपके लेखन में कुछ तो जादू सा है.
सुनहरी यादें
श्वेताजी आपकी ये रचना बहुत अच्छी लगी...
बहुत खूब...
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