Saturday, April 14

सलोना बसंत,

शुन्य मे खोया ह मेरा सलोना बसंत,
मेरी खुशीया, मेरे सपने, समेटे सो रह निश्चिनत,
दून्ड रही हू की ना जाने कहॉ,
छीप गया मेरा सलोना बसंत

जानते ह कोण वो निद्रलीं बसंत,
वोह मेरे जीवन का सुखचैन,
जो आया ना कभी?सुने ह जिस बिन दिन-रेन.

या शायद आया था पर शानीक था उसका आगमन,
अस्हस भी ना कर पायी थी की, हो गया उडंत,
इंतजार ह की इक दिन जरूर आयेगा बसंत.

क्यों जीवन सूना ह मेरा,
क्यों सीतारे ह मुज्से खफा,
पर शायद सब इसी तरह सोचते ह,
सब खोजते ह अपने अपने बसंत।

क्या सचमुच खो गया हवो,
या बहलाते ह हम्खुद को,
हजारों तीखे प्रशनो से बचाते ह खुद को,
जबकि क़ैद कर लिया ह हमने अपने अपने बसंत.

स्वीकारते नही पर सत्य ह यही,
क़ैद करके, सुख अपना खोजते हसभी ,
सोचो ना अगर लालसा होती,ना त्रिशाना होती, सब प जाने की,
ना bhokh बढती तो कैसे खोता ये बसंत.

हमारी अदम्य लालसा ने chinaha इसे हमसे,
वो यही ह हर पल पर अदरिशाये अविचल,
ना doondte फिरते उसे हम सब,
अगर होता हमारी इच्हाओ का कोई अंत.

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