Friday, July 4

मरुथल

मृगत्रिष्णा लिए हुए व्यथित मन मैं,
विचरण करती हूँ मैं मरुथल मैं,
जब -तब , यहाँ -वहां जल की तलाश मैं,
भटकूं मै जाने किस आस मैं,

जाती हूँ जब निकट मै उस मरीचिका के,
मलती हाथ मिलता नही कुछ वह पे,
कस्तूरी की सुगंधी सी खिचती हूँ मैं,
जाने क्यों मरुस्थल मै भटकती हूँ मैं.

एक मीठा झरना मिल जाता कहीं तो,
भटकन ये समाप्त होती कहीं तो
सोचती हूँ हर बार मन ही मन मैं
पर मन का मिलन होता नहीं कहीं पे

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