Wednesday, July 16

बहता नीर

बहता सा मैं नीर न होती,
ठहरा सा मैं जल जो होती
न आते लोग यहाँ पर
जल की तृष्णा लिए हुए फ़िर
ठहरा पानी एक जगह का
मटमैला हो जाता चाहे फ़िर
पर यू दर बदर न फिरती
मृगत्रिष्णा लिएय हुए फ़िर
प्रेम नदी सी कल कल बहती
एक मीठे झरने की चाहत
जाने कहाँ मुझे ले आई
हस्ती रहती हूँ मैं बहती
पर पीरा होती ह कहीं पर
काश मेरा भी कोई समन्दर होता
काश मै दर बदर न बहती
काश मै समां जाती एक आगोश मैं
मैं तडपती पल पल न रहती

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