Friday, May 21

जुलम बर्दाश्त नहीं होता

सहनशक्ति की देवी मुझे  समझो न,
मॆं भी इंसान हूँ  मुझे   भी ह जीना
मेरी भी बहुत सी ख्वाहिशें,
सुप्त ह पड़ी हं ऑंखें मूंदे,
न जगाओ की वो रावन है  एक सोया!
मुह बाये खड़ी हो जाये विकराल रूप मॆं,
और एक दिवस मुझे  वो कर लेंगी जब अपने बस मॆं!
मॆं फिर एक विक्षिप्त, आहत पंछी  की तरह
चल पडूँगी  ऑंखें मूंदे  उस पथ पे
मुझे रोक लो की बस हो चुकी है   बहुत
मुझसे अब ये जुलम अपनी आत्मा पे बर्दाश्त नहीं होता

2 comments:

sachin said...

very nice poem.. gud to see hindi on blog :)

kunwarji's said...

आपकी भावाभिव्यक्ति शानदार रही जी......बहुत बढ़िया.....

कुंवर जी,