जार जार न रुला मुझे,
मैं टूट के बिखर जाउँगी
मैं टूट के बिखर जाउँगी
तो लौट के फिर ना आउंगी
अब तन्हा सा रह गया है
जिंदगी का ये सफ़र
वो मेरे साथ था मगर
दूरियां सी बढ गयी
दिल दूर न हुए अभी पर
मीलो दूर जगह नयी
अब और बार न रुला मुझे
मैं अब न जी पाऊंगी
6 comments:
आपकी कविता में दर्द के कई रंग हैं. दीपोत्सव की शुभकामनायें.
bahot achche......
very nice piece of poetry. masterpiece.
अति सुंदर!अतिशोभन!!
बहुत ही उत्तम भावाभिव्यक्ति!
बहुत-बहुत बधाई!!
कोई पुस्तक प्रकाशित हुई है तो बताएं!
सादर/सप्रेम
सारिका मुकेश
अति सुंदर!अतिशोभन!!
बहुत ही उत्तम भावाभिव्यक्ति!
बहुत-बहुत बधाई!!
कोई पुस्तक प्रकाशित हुई है तो बताएं!
सादर/सप्रेम
सारिका मुकेश
nahi pustak abh prakashit nahi hui, bas kahin kahin kavtaye prakasht hui hain. pustak prakishit karne ka sahi wakt nahi aya abhi lagta ha ha
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