Wednesday, December 14

मैं फिर से हार गयी , हार गयी

सुबह ने दर्द भरा एक पयाम दिया ,
कुछ टूट गया ह कहीं पर ऐसा काम हुआ ,
वो दूर हो गए हमसे जब हम उनके करीब हुए
खुदाया ये तूने कैसा काम किया?
 मैं क्यों नहीं रख पाई उसे उम्र भर के लिए,
उम्र न रहे अब तो कोई है न गिला
जिस के लिए साँसों को उम्मीद से जोड़ रखा था 
उन्हें अब खीच रही है किसी की मासूमियत वहां 
मैं जानती हूँ कोई उनका इसमें कसूर नहीं
न जानते बूझते उनोने ऐसा काम किया
मगर तन्हाई उनके जाते ही,उलझन बन गयी
मेरी साँसों की डोर से दुश्मनी है क्या पिया?
ना अब तुमरे रास्तो मैं आएंगे
हम तो वो लो है की जलते जायेंगे
मगर खुद को ही जला बैठेंगे इस उलझन में
आंसू अब मेरे तुमको न रोक पाएंगे,
ये लो किसी गैर की मासूमियत जीत गयी
मैं फिर से हार गयी , हार गयी







1 comment:

विभूति" said...

भावमय करते शब्‍दों का संगम....