मगर पूछती हो मैं आपसे की
क्या सच मे ,मैं आजाद हू?
पिटा के घर थी, तो उसके घर की इज़्ज़त,
पति के घर मे उसके घर की रोनक,
घर की चार दिवारी मे महफूज हू,
बाहर निकल गयी तो रोंके बाजार हू.
क्या सच मे मैं आजाद हू?
कभी अर्धांगिनी,कभी ममतामयी ,
मान थी अब तक, मेरी मजबूरी ,
सिसिकियां क्लेती थी जब तब.
पर मांगी हक ओर स्वतंत्रता,
तो कहते हो जड़- ये फसाद हू.
क्या सच मे मैं आजाद हू?
गलती पुरुष करे तो माफ,
जो मे गलती करू तो जड़- ये अपराध हू,
क्या सच मे मैं आजाद हू?
ज़माना बदल गया ह,इसका मे जवाब हू,
कम काजी बन कर लापरवाह का पा चुकी खिताब हू
क्या सच मे मैं आजाद हू?
मानती हू धुप बहार की बर्दाश्त नही ह,
मानती हू मर्द के हाथ मे ताकत ह,
मानती हू उसके घर मे इज्जत ह,
इस बात को नाक्रा ना मेने कभी,
की रौशनी मेरे चलने के लिया ह जरोरि,
पर फीर भी मे चुभता हुआ सवाल हू,
जब सब कर गुजर के थक जति हू,
मांगती मे भी एक पनाह हू,
मे हर पल जब हमसफ़र के साथ हू,
तो मांगती ओर कुछ नई उसका हाथ हू,
जिसके कंधे पे मे भी रो सकती,
कमजोर से ताकतवर हो सकती,
मे उस कंधे की तलाश हू?
मे आँखों मे लिया एक प्रतिकार हू,
मे एक दबा सा अहसास हू,
मे अंतहीन एक तलाश हू,
क्या सच मे आजाद हू?
No comments:
Post a Comment