Sunday, April 15

दोहरी जिन्दगी

दोहरी ह मेरी या जिदगी क्यों लगता ह,
एक बालपन ह मुज्मे जो अब भी रहता ह,
मेरा बचपन अब भी अंग्रायिया लेता ह,
ओर जिमेवारियो की धुप मुज़े जलती ह,
फीर भी मेरा ये मन कहता ह,
जीसे खोजती हू वो यही कहीँ ह,
जीसे दूद्ती हू वो मेरा अंश ह,
क्यों जीने नही देता समाज मुज़े ,
मेरे इस बचपन के साथ,
रहने नई देता कोई मुज़े,
क्यों जलती ह जिम्मेवारियों की धुप मुज़े,
क्यों थकती ह सफ़र की दूरियां मुज़े.
क्यों जी रही हू मे ये दोहरी जिन्दगी

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