Sunday, April 15

गुमराह

गुमराह थे अभी तक,आज घर लोट आये ह,
नींद मे थे अभी तक, अब जग कर आये ह,
अब सहर हो गयी ह जिन्दगी मे,
दूर अब रातो के साये ह,
अंधे हुए जाते थे जिनके प्यार मे,
मालूम चला की वो तो स्वार्थ के,
एक जीते जागते बुत बने बांये ह,
अनख खुली तो पाया हमने,
खो दी अपनी मासूमियत हमने,
उने पाने की जिद मे खो कर खुद को आये ह,

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