कागज पर ढल आई है मेरे अक्स की स्याही, कुछ और नहीं मैं बस एक रचना ही तो हूँ
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Wednesday, July 25
मुकदर
ये मुकदर ह जो इन्सान को सिकंदर बनते ह, ये मुकदर ह जो इन्सान को हसाते ह, कभी अर्शो पे चदता ह वोही इन्सान, ये ही मुकदर ह जो उसको गिराते ह, कभी हम भी किस्मत की लाकिरो को माना नही करते थे, आज मानते ह ये लकीर ह जो मुकदर बनते ह!
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