क्या सच ही उम्र के साथ इन्सान अनुभव्युक्त हो जाता ह,
फीर क्यों चलते चलते पाथ पर धुन्दल्का सा छाता ह,
मैं भी चली इस जीवन पथ पर जीवन का अर्थ पाने को,
पर खुद को ही खो बेठी हू, खोजूं क्या अब ज़माने को,
मेरी अन्तिम यात्रा आरम्भ होने ही वाली ह
उजले उजले दिन नही होते, ना राते ही कलि ह
सब कुछ इन अनुभवों से परे सा मुझे नजर युऊ आता ह
ऐसा लगता ह,मेरा इस जग से ना कोई नाता ह
मे इस जग की हुई ही कब थी, जो आज मे जग मे समां पओंगी ?
मेरी सोच तो इस अधूरे पन से कहीँ जायदा ह
इन सारी सोचो के पिछे, उस परब्रह्म से नाता ह
अब लगता ह मेरा अंत निकट को आता ह...
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