जब भी आसमान को छूने लगती हूँ मॆं,
मंजिले और दूर कहीं नजर आती हैं,
जब भी सोचती हूँ कि बस अब,
यही तक ह जाना,
रास्ते की पेमयिशें और फिर और ,
बढती ही चली जाती ह,
इस कदर शिदत से मंजिल कि चाह करना,
शायद यही मेरा कसूर ह,
मंजिल को पाने के लिए,
जी जान लगाना, शायद यही मेरा कसूर ह,
वो लोग भी हैं ज़माने मॆं जिनके,
कदम मंजिले खुद छू जाती ह,
वो कुछ करें न करें मगर उनके लिए
राहें खुद ही खुल जाती ह
पर मॆं जानती हूँ
जितनी शिद्दत से किसी चीज को चाहो
उसे पाने का नशा उतना ही हसीं होता ह
इसलिए दूर हुई मंजिले और हँसी हो जाती हैं
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