तुमने कहा की ये इश्क ह
चलो माना ये इश्क ह
मगर एक बात कहे दे तुमको
की हमने भी ऐसे इशक को
काफूर होते देखा ह
लोग बातें बुनते बहुत हा
इशक इश्क चिल्लाते बहुत ह
पर इस जज्बे को हमने जाने
क्यों नासूर बनते देखा ह
एक दिन ज़माने की आग मे
ये इश्क विषक सब जल जाते ह
तब लोग पल्ला झाड़ कर
आगे को बढ जाते ह
ये बदनामी का दरिया ह आजकल
इस बदनामी के डर से
बहुत से रंझो को हमने
हीरो को रुलाते मिटते देखा ह
कागज पर ढल आई है मेरे अक्स की स्याही, कुछ और नहीं मैं बस एक रचना ही तो हूँ if u want to see the poems of my blog, please click at the link of old posts at the end of the each page
Friday, July 25
Friday, July 18
मेरी इच्छा
मेरी मर्जी मेरी इच्छा
नही मायने रखती कोई
मैं खुश हूँ तो तुम रोते हो
मैं रोई तो हर रोज थी रोई
एक एक पल तनहा तनहा
मत पूछो मैंने था काटा
हर बार पुकारा, तुमको बुलाया
पर तुमने कुछ न बताया
मै उस बाबुल के आंगन से
निकली तो थी पर न रोई
क्यूकी सोचा मैने ऐसा?
कैसा ये हा अजब सा नाता
मे जिनकी बाँहों मे पली थी
जिनके आंगन मैं खेली थी
जब वो ही मुझको समझ न पाए
तो पराया और कोण समझेगा
मैं उस दिन मर गई अपनी आत्मा
को कब्र मे दबा के, मगर अनजाने कैसे
फ़िर ये कलमुही जाग उठी हा मेरी इच्छा
हे प्रभु दबा दो मेरी इच्छा
मेरी इच्छा उनकी पीरा है
मेरा हसना उनकी सजा हा
Wednesday, July 16
बहता नीर
बहता सा मैं नीर न होती,
ठहरा सा मैं जल जो होती
न आते लोग यहाँ पर
जल की तृष्णा लिए हुए फ़िर
ठहरा पानी एक जगह का
मटमैला हो जाता चाहे फ़िर
पर यू दर बदर न फिरती
मृगत्रिष्णा लिएय हुए फ़िर
प्रेम नदी सी कल कल बहती
एक मीठे झरने की चाहत
जाने कहाँ मुझे ले आई
हस्ती रहती हूँ मैं बहती
पर पीरा होती ह कहीं पर
काश मेरा भी कोई समन्दर होता
काश मै दर बदर न बहती
काश मै समां जाती एक आगोश मैं
मैं तडपती पल पल न रहती
ठहरा सा मैं जल जो होती
न आते लोग यहाँ पर
जल की तृष्णा लिए हुए फ़िर
ठहरा पानी एक जगह का
मटमैला हो जाता चाहे फ़िर
पर यू दर बदर न फिरती
मृगत्रिष्णा लिएय हुए फ़िर
प्रेम नदी सी कल कल बहती
एक मीठे झरने की चाहत
जाने कहाँ मुझे ले आई
हस्ती रहती हूँ मैं बहती
पर पीरा होती ह कहीं पर
काश मेरा भी कोई समन्दर होता
काश मै दर बदर न बहती
काश मै समां जाती एक आगोश मैं
मैं तडपती पल पल न रहती
Friday, July 4
मरुथल
मृगत्रिष्णा लिए हुए व्यथित मन मैं,
विचरण करती हूँ मैं मरुथल मैं,
जब -तब , यहाँ -वहां जल की तलाश मैं,
भटकूं मै जाने किस आस मैं,
जाती हूँ जब निकट मै उस मरीचिका के,
मलती हाथ मिलता नही कुछ वह पे,
कस्तूरी की सुगंधी सी खिचती हूँ मैं,
जाने क्यों मरुस्थल मै भटकती हूँ मैं.
एक मीठा झरना मिल जाता कहीं तो,
भटकन ये समाप्त होती कहीं तो
सोचती हूँ हर बार मन ही मन मैं
पर मन का मिलन होता नहीं कहीं पे
विचरण करती हूँ मैं मरुथल मैं,
जब -तब , यहाँ -वहां जल की तलाश मैं,
भटकूं मै जाने किस आस मैं,
जाती हूँ जब निकट मै उस मरीचिका के,
मलती हाथ मिलता नही कुछ वह पे,
कस्तूरी की सुगंधी सी खिचती हूँ मैं,
जाने क्यों मरुस्थल मै भटकती हूँ मैं.
एक मीठा झरना मिल जाता कहीं तो,
भटकन ये समाप्त होती कहीं तो
सोचती हूँ हर बार मन ही मन मैं
पर मन का मिलन होता नहीं कहीं पे
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