एक बेनाम सा रिश्ता ,
जो हर पल मुझे ख़ुशी देता ह
दुःख ह की वो मेरा अपना क्यों नहीं ?
कागज पर ढल आई है मेरे अक्स की स्याही, कुछ और नहीं मैं बस एक रचना ही तो हूँ if u want to see the poems of my blog, please click at the link of old posts at the end of the each page
Saturday, September 22
Saturday, September 15
हर बार
हर बार तड़प बढ जाती ह, सोचती हूँ अब ना मिलोंगी तुझसे
बस एक आखिरी बार मिल कर,
पर जाने क्यों ये तड़प मिल कर ओर ही गहरा जाती ह
ना मिलो तो रुलाती ह
क्या करू तेरे इस प्यार का?
जब कह ही दीया था तुम ने
की रिश्ता कभी भी ना निभेगा
फीर क्यों चाह तुझे पाने की छोड पाती नही
क्यों खुद को तुमसे मिलने से रोक पाती नही
बस एक आखिरी बार मिल कर,
पर जाने क्यों ये तड़प मिल कर ओर ही गहरा जाती ह
ना मिलो तो रुलाती ह
क्या करू तेरे इस प्यार का?
जब कह ही दीया था तुम ने
की रिश्ता कभी भी ना निभेगा
फीर क्यों चाह तुझे पाने की छोड पाती नही
क्यों खुद को तुमसे मिलने से रोक पाती नही
Friday, September 14
उसका मेरा रिश्ता
उसका मेरा रिश्ता पुराना ह ,
पुरानी शराब की तरह मगर,
अभी तक क्यों इसमे सुरूर आया नही?
उसका मेरा रिश्ता रस्मो से सजा हुआ
लिपटा हुआ श्वेत चादर मे मगर,
फीर क्यों इसमे से महक कोई अति नही ह?
पुरानी शराब की तरह मगर,
अभी तक क्यों इसमे सुरूर आया नही?
उसका मेरा रिश्ता रस्मो से सजा हुआ
लिपटा हुआ श्वेत चादर मे मगर,
फीर क्यों इसमे से महक कोई अति नही ह?
मेरा प्यार मेरा नही?
ना पूछो मुझसे कोई,
की सजल क्यों ह नयन ये
इन सजल नैनों ने
बहुत से सावन देख लिए
पर एक भी बदली मेरे,
अंतर्मन को भिगो ना पायी
मै क्या करू उस सावन क
जो मेरी प्यास की तड़प ओर बड़ा दे
मै क्या करू उस निर्मोही मन का
जो अब तक मेरे नेह मै भीगा ही नही
नेह के गगन पर एक तारा भी मेरा नही
अँधेरे ह काले क्यों
मेरा प्यार मेरा नही?
की सजल क्यों ह नयन ये
इन सजल नैनों ने
बहुत से सावन देख लिए
पर एक भी बदली मेरे,
अंतर्मन को भिगो ना पायी
मै क्या करू उस सावन क
जो मेरी प्यास की तड़प ओर बड़ा दे
मै क्या करू उस निर्मोही मन का
जो अब तक मेरे नेह मै भीगा ही नही
नेह के गगन पर एक तारा भी मेरा नही
अँधेरे ह काले क्यों
मेरा प्यार मेरा नही?
Tuesday, September 11
मेरा घर
मेरा घर बसा नही, मुझे ग़म नही "ए- खुदा"
बस तू हज़ार घर उजड़ने से बचा लेना
मे बना नही पाई कभी अपना आशियाना
हज़ारो आशियानो में मिलन के फूल खिला देना
किसी के चेहरे की हँसी देखा,कुछ देर सही
अपना ग़म भूल जाओँगी,मैं कहीं
इन गमो को मेरी मैयत की चादर बना देना
बस तू हज़ार घर उजड़ने से बचा लेना
मे बना नही पाई कभी अपना आशियाना
हज़ारो आशियानो में मिलन के फूल खिला देना
किसी के चेहरे की हँसी देखा,कुछ देर सही
अपना ग़म भूल जाओँगी,मैं कहीं
इन गमो को मेरी मैयत की चादर बना देना
Sunday, September 9
अधूरा रिश्ता
हर रिश्ता अधूरा सा ह
पति का पत्नी से रिश्ता अधूरा ह
जब तक हवास हो प्यार ना
पिता का बेटी से रिश्ता अधूरा ह
जब तक वो एक दूजे को हक से कुछ कह ना पायें
माँ का बेटी से रिश्ता अधूरा ह,
जब तक रिश्ते के साथ अपना पन ना हो,
प्रेमी का प्रेमिका से रिश्ता अधूरा ह
जब तक प्यार दोनो तरफ ना हो
मैं जी रही हू इन अधूरे रिश्तों को
जीवन शुन्य सा ह, अधूरी हूँ मैं
पति का पत्नी से रिश्ता अधूरा ह
जब तक हवास हो प्यार ना
पिता का बेटी से रिश्ता अधूरा ह
जब तक वो एक दूजे को हक से कुछ कह ना पायें
माँ का बेटी से रिश्ता अधूरा ह,
जब तक रिश्ते के साथ अपना पन ना हो,
प्रेमी का प्रेमिका से रिश्ता अधूरा ह
जब तक प्यार दोनो तरफ ना हो
मैं जी रही हू इन अधूरे रिश्तों को
जीवन शुन्य सा ह, अधूरी हूँ मैं
Thursday, September 6
क्या जरूरी ह?
टूटे टूटे रिश्ते, ओर रिसता हुआ नासूर
दर्द से कराह्ती आत्मा, रोज छलनी करती बाते
अगर रिश्तों मै कुछ बचा ही ना हो तो क्या
रिश्ते निबाहना जरूरी ह?
जिस नदी का पानी सूख जाये,
क्या उसमे फीर से पनि बहाना जरूरी ह?
दर्द से कराह्ती आत्मा, रोज छलनी करती बाते
अगर रिश्तों मै कुछ बचा ही ना हो तो क्या
रिश्ते निबाहना जरूरी ह?
जिस नदी का पानी सूख जाये,
क्या उसमे फीर से पनि बहाना जरूरी ह?
Monday, September 3
क्या सच ही?
क्या सच ही उम्र के साथ इन्सान अनुभव्युक्त हो जाता ह,
फीर क्यों चलते चलते पाथ पर धुन्दल्का सा छाता ह,
मैं भी चली इस जीवन पथ पर जीवन का अर्थ पाने को,
पर खुद को ही खो बेठी हू, खोजूं क्या अब ज़माने को,
मेरी अन्तिम यात्रा आरम्भ होने ही वाली ह
उजले उजले दिन नही होते, ना राते ही कलि ह
सब कुछ इन अनुभवों से परे सा मुझे नजर युऊ आता ह
ऐसा लगता ह,मेरा इस जग से ना कोई नाता ह
मे इस जग की हुई ही कब थी, जो आज मे जग मे समां पओंगी ?
मेरी सोच तो इस अधूरे पन से कहीँ जायदा ह
इन सारी सोचो के पिछे, उस परब्रह्म से नाता ह
अब लगता ह मेरा अंत निकट को आता ह...
फीर क्यों चलते चलते पाथ पर धुन्दल्का सा छाता ह,
मैं भी चली इस जीवन पथ पर जीवन का अर्थ पाने को,
पर खुद को ही खो बेठी हू, खोजूं क्या अब ज़माने को,
मेरी अन्तिम यात्रा आरम्भ होने ही वाली ह
उजले उजले दिन नही होते, ना राते ही कलि ह
सब कुछ इन अनुभवों से परे सा मुझे नजर युऊ आता ह
ऐसा लगता ह,मेरा इस जग से ना कोई नाता ह
मे इस जग की हुई ही कब थी, जो आज मे जग मे समां पओंगी ?
मेरी सोच तो इस अधूरे पन से कहीँ जायदा ह
इन सारी सोचो के पिछे, उस परब्रह्म से नाता ह
अब लगता ह मेरा अंत निकट को आता ह...
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